(शब्द नं. 27)
चल दिए ओड़ निभा के
टेक:- चल दिए ओड़ निभा के, सतगुरु के प्यारे।
दोनों जहां की खुशियों के, लूट के नजारे॥
1. इस कलयुग में प्रीत गुरू से, कोई कोई लगाते हैं।
कहने को प्रेम सब कह लेते, कोई कोई निभाते हैं।
सच्ची प्रीत लगा के, चल दिए ...
2. प्रेम कमाना, मन को मनाना आसान कोई बात नहीं।
गुरू के जवानी लेखे लगाना, ऐरे गैरे की औकात नहीं।
सब कुछ भेंट चढ़ा के, चल दिए ...
3. मजाजी प्रेम में आशिकों ने, महबूब पे बली चढ़ाई।
झूठे प्रेम में जान गवाई, सच्ची प्रीत प्रभु की बताई।
हकीकी प्रीत लगा के, चल दिए ...
4. हकीकी प्रीत लगा के प्रेमी, मौत देख हर्षाते हैं।
नूरी सरूप प्रीतम प्यारे की, गोद में बैठ के जाते हैं।
झंझट सब मिटा के, चल दिए ...
5. धन हैं माता-पिता जिन ऐसे, लाल को जग में जन्म दिया।
काल देश में रहकर जिसने, सतगुरु लिए हर कर्म किया।
जय-जय कार कराके, चल दिए ...
6. प्रेम कमाना, शेर जगाना, डरपोकों का काम नहीं है।
प्रेम को पाकर ओड़ निभा जे, सच्चा आशिक ही वहीं है।
मर्द गाजी कहलाके, चल दिए ...
7. अहं खुदी को छोड़ के प्रेमी, जीते जीअ खल लुहाते हैं।
रजा में राजी रहकर मानें, जो मुर्शिद फरमाते हैं।
जीते जीअ रब्ब को पाके, चल दिए ...
8. सतगुर के प्रेम में खो के, सब कुछ वो पा जाते हैं।
बिना गुरु के जो कुछ ना देखे, सच को देख वो जाते हैं।
गुरु से, गुरु को पाके, चल दिए ...
9. आहें दिल से निकलती हैं जो, सतगुरु प्रीत बढ़ाती हैं।
नजर - ए- जाम सतगुर का ऐसी, रूहें पल-पल पाती हैं।
मस्ती अन्दर टिका के, चल दिए ...
10. “दास कहे वडभागी जीव जो, गुरू से ओड़ निभाएं जी।
धन-धन कहें उन सबको जी, शब्द ना और मिल पाएं जी।
सतगुर गोद सजा के, चल दिए ...।।